Saturday, May 28, 2011

निस्पृहता

देश को स्वाधीनता मिल गयी। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले सैनिकों को याद किया गया। सभी को पुरुस्कृत-सम्मानित करने, पेंशन-पदक-यात्राभत्ता-वंशजों के लिए सुविधाएँ, जैसी व्यवस्थाएं होने लगीं। आज़ादी के लम्बे अरसे के बाद सरकार को सुधि आई और १९८६ में शासन के जिलाधीश स्तर के एक अधिकारी पेंशन आदि का प्रस्ताव ले कर आये। श्रीराम 'मत्त' का नाम स्वतंत्रता संग्राम सैनिक - एक जुझारू सत्याग्रही के रूप में आगरा जिले के रिकार्ड्स में था, पर अपनी ओर से कोई प्रयास पूज्यवर ने नहीं किया। जब उच्चाधिकारियों नें देरी के लिए क्षमा-याचना मांगते हुए पेंशन स्वीकार करने की बात कही तो गुरुदेव बोले - 
"राष्ट्र के सम्मान चिन्ह के प्रतीक रूप में पदक तो मैं रख लेता हूँ, पर किन्ही सुविधाओं की मुझे न तो कभी अपेक्षा थी, न रहेगी। संग्राम में भागीदारी मेरी थी, इसका लाभ वंशजों को क्यों मिले? मेरे वंशज तो करोड़ों प्रज्ञापरिजन हैं। ऐसा करें आप पेंशन राष्ट्रीय सुरक्षा निधि में दे दें।"
 अधिकारी एक निस्पृह  संत, तपस्वी, योद्धा को देखते भर रह गए। फिर उनका निर्देश पालन कर वापस लौट गए। निस्पृहता को उनने अपने जीवन की सबसे बड़ी पूँजी माना। वे कहते थे - 

"ईश्वरविश्वास की सबसे बड़ी कसौटी है - निस्पृहता। जो जितना परमात्मा की शक्ति ओर उसके अस्तित्व पर विश्वास करता है, वह उतना ही निस्पृह हो जाता है।"