Thursday, April 26, 2012

दान का भाव

एक कार्यकर्त्ता एक सेठजी को लेकर शांतिकुंज को आए। कलकत्ता के वे सेठजी खूब दान देते थे। कार्यकर्ता भाई को लगा की यह संभवतः गुरूजी से मिलकर अपना दान गायत्री मिशन के विस्तार हेतु और बढ़-चढ़ देंगे। परिचय हुआ। सेठजी ने कहा - "पंडित जी! आप सबके आदर्श हैं। मैं भी चाहता हूँ की समाजसेवा के निमित्त मैं भी कुछ काम आऊं, पर देखिये स्वामी जी! मेरी एक शर्त है। मेरे दिए दान से कमरे बनें। कर कमरे के सामने मेरे परिवारजनों के नाम खुदवाए जाएँ। देखिये में लिस्ट भी लाया हूँ। मैंने शांतिकुंज पूरा देख लिया है। बड़ा प्रभावित हूँ।" पांच लाख रुपये उनने तुरंत सामने रख दिए। गुरुदेव तेजस्वी भाव से उठकर खड़े हुए और कार्यकर्ता को झिड़कते हुए बोले - "तू किन्हें ले आया। यह तो कब्रिस्तान बनाना चाहते हैं। में क्रांति करना चाहता हूँ। इनने मिशन का स्वरुप नहीं समझा। जाओ, ले जाओ इन्हें, मुझे इनका एक भी पैसा नहीं चाहिए।" दान को ठुकराने वाला सेठजी को पहली बार मिला था। वे सन्न रह गए। कार्यकर्ता तुरंत उन्हें और राशि को लेकर नीचे उतर गए। अपनी प्रखरता की इसी दुधारी तलवार से जीवन भर वे आदर्शों की राह में आने वाले अवरोधों को काटते रहे। यह बात अलग है की वे सेठजी बाद में पुनः आए, शिविर में सम्मिलित हुए, अपने यहाँ यज्ञ करवाया एवं निष्काम भाव से खुलकर दान दिया, पर वे अभिभूत थे ऐसे संत तपस्वी से सीख लेकर, डांट खाकर।

 - अखंड ज्योति, मार्च २०११, पृष्ठ ३१ से संकलित

Sunday, April 15, 2012

संस्कार का अवरोध

ऋषि विश्वामित्र तब ब्रह्मर्षि नहीं बने थे। गायत्री जप कर रहे थे। कठोर साधना कर रहे थे। श्रेष्ठ तपस्वी-योगी के भी कुछ संस्कार ऐसे रह जाते हैं जो कहीं-न-कहीं अवरोध बन जाते हैं। इन्द्र ने मेनका को भेजा। ऋषि की तपःस्थली के चरों और वसंत छा गया। वे मेनका के सौन्दर्य के समक्ष पराजित हो गए। समय बीता ! एक बेटी ने जन्म लिया। एक सवेरे थोडा जल्दी उठ गए थे। पत्नी मेनका भी साथ उठी। अचानक सूर्योदय देखा। बोले - "अरे! ब्राह्ममुहूर्त आ गया और हमने संध्या भी नहीं की। यह तो हमारा नियम था।" मेनका बोली - "नाथ! आपकी कितनी संध्याएँ निकल गईं, आपको पता है? तीन वर्षा बीत गए। दो वर्ष की तो बेटी हो गयी है।" बोध-प्रबोध हुआ।तुरंत सब छोड़कर पुनः सारा क्रम प्रारंभ किया। जीवात्मा को होश ही नहीं रहता। कोई-न-कोई संस्कार, भले ही वह एक ही रह गया हो, अवरोध बन जाता है। चित्तशुद्धि, श्रद्धा के संबल एवं नियमित उपासना से उस अवरोध को भी हटाया जा सकता है।
- अखंड ज्योति, जून २०११, पृष्ठ २०