Sunday, April 15, 2012

संस्कार का अवरोध

ऋषि विश्वामित्र तब ब्रह्मर्षि नहीं बने थे। गायत्री जप कर रहे थे। कठोर साधना कर रहे थे। श्रेष्ठ तपस्वी-योगी के भी कुछ संस्कार ऐसे रह जाते हैं जो कहीं-न-कहीं अवरोध बन जाते हैं। इन्द्र ने मेनका को भेजा। ऋषि की तपःस्थली के चरों और वसंत छा गया। वे मेनका के सौन्दर्य के समक्ष पराजित हो गए। समय बीता ! एक बेटी ने जन्म लिया। एक सवेरे थोडा जल्दी उठ गए थे। पत्नी मेनका भी साथ उठी। अचानक सूर्योदय देखा। बोले - "अरे! ब्राह्ममुहूर्त आ गया और हमने संध्या भी नहीं की। यह तो हमारा नियम था।" मेनका बोली - "नाथ! आपकी कितनी संध्याएँ निकल गईं, आपको पता है? तीन वर्षा बीत गए। दो वर्ष की तो बेटी हो गयी है।" बोध-प्रबोध हुआ।तुरंत सब छोड़कर पुनः सारा क्रम प्रारंभ किया। जीवात्मा को होश ही नहीं रहता। कोई-न-कोई संस्कार, भले ही वह एक ही रह गया हो, अवरोध बन जाता है। चित्तशुद्धि, श्रद्धा के संबल एवं नियमित उपासना से उस अवरोध को भी हटाया जा सकता है।
- अखंड ज्योति, जून २०११, पृष्ठ २०

No comments: